अभ्यास के सभी प्रश्नोत्तर
(i). निम्नलिखित में से जल किस प्रकार का संसाधन है ?
(क) अजैव संसाधन
(ख) अनवीकरणीय संसाधन
(ग) जैव संसाधन
(घ) अचक्रीय संसाधन
उत्तर-उपर्युक्त प्रश्न के चारों विकल्प गलत हैं क्योंकि जल एक चक्रीय संसाधन है।
(क) तमिलनाडु
(ख) कर्नाटक
(ग) आंध्र प्रदेश
(घ) केरल
उत्तर-(क) तमिलनाडु
(क) सिंचाई
(ख) उद्योग
(ग) घरेलू उपयोग
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर- (क) सिंचाई
(I) यह कहा जाता है कि भारत में जल संसाधनों में तेजी से कमी आ रही है। जल संसाधनों की कमी के लिए उत्तरदायी कारकों की विवेचना कीजिए।
उत्तर- पृथ्वी पर अलवणीय जल अत्यंत कम मात्रा में उपलब्ध है और इसका वितरण भी असमान है। जनसंख्या बढ़ने से जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता प्रतिदिन कम होती जा रही है। बढ़ते हुए जल प्रदूषण के कारण भी उपयोगी जल संसाधनों की मात्रा सीमित होती जा रही है। बदलती हुई जीवनशैली ने भी जल के अति उपयोग तथा दुरुपयोग को बढ़ावा दिया है। फल स्वरूप जल संसाधनों की कमी का अनुभव किया जा रहा है।
उत्तर- पंजाब, हरियाणा और तमिलनाडु राज्य में भौम जल का उपयोग अधिक होने का मुख्य कारण कृषि क्षेत्र में जल की मांग है। इन राज्यों में कृषि भूमि का काफी बड़ा भाग सिंचाई के अधीन है। इसके अलावा शुष्क मौसम की लंबी अवधि, बढ़ती हुई जनसंख्या तथा तेज गति से होते औद्योगिकरण ने भी जल की आवश्यकता को बढ़ाया है। इन सब कारणों से भौम जल दोहन इन क्षेत्रों में अधिक हुआ है।
उत्तर- अभी कुल जल उपयोग में कृषि क्षेत्र का हिस्सा दूसरे क्षेत्रों से अधिक हैं किंतु देश में बढ़ते हुए औद्योगिकरण तथा जनसंख्या वृद्धि के कारण औद्योगिक और घरेलू सेक्टरों में जल का उपयोग बढ़ने की संभावना है। तेजी से बढ़ती जनसंख्या और अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के साथ अन्य सेक्टरों में जल का उपयोग बढ़ेगा जिसे देखते हुए ही कृषि क्षेत्र में जल का हिस्सा कम होने की संभावना कही जाती है।
उत्तर- दूषित होने पर जल स्रोत मानव उपयोग के योग्य नहीं रहते हैं। जल प्रदूषण विभिन्न प्रकार की जल जनित बीमारियों का एक प्रमुख स्रोत होता है। संदूषित जल के उपयोग के कारण दस्त(डायरिया), आंतों के कृमि, हेपेटाइटिस जैसी बीमारियाँ होती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत में लगभग एक चौथाई संचारी रोग जल-जनित होते हैं।
(I) देश में जल संसाधनों की उपलब्धता की विवेचना कीजिए और इसके स्थानिक वितरण के लिए उत्तरदायित्व निर्धारित करने वाले कारक बताइए।
उत्तर- भारत में विश्व की कुल जल संसाधनों का लगभग 4% पाया जाता है। देश में एक वर्ष में वर्षण से प्राप्त कुल जल की मात्रा लगभग 4000 घन किलोमीटर है। धरातलीय जल और पुनः पूर्तियोग्य भौम जल से 1869 घन किलोमीटर जल उपलब्ध है। इसमें से केवल 60% जल का लाभदायक उपयोग किया जा सकता है।
देश में कुल 10,360 नदियाँ हैं जिनमें से प्रत्येक की लंबाई 1.6 किलोमीटर या इससे अधिक है। भारत के सभी नदी बेसिनों में औसत वार्षिक प्रवाह 1869 किलोमीटर होने का अनुमान किया गया है। किंतु विभिन्न कारणों से इस धरातलीय जल का केवल 690 घन किलोमीटर (32%) जल का ही उपयोग किया जा सकता है। देश में कुल पुनः पूर्तियोग्य भौम जल संसाधन लगभग 432 घन किलोमीटर है। इस प्रकार देश में कुल उपयोगी जल संसाधन1122 घन किलोमीटर (690+432=1122) है।
जल के स्थानिक वितरण के लिए उत्तरदायी कारक-
विश्व की तरह ही भारत में भी जल संसाधन का वितरण असमान मिलता है। इसके लिए उत्तरदायी विभिन्न कारक निम्नलिखित हैं-
1) वर्षण का असमान वितरण-
भारत में वर्षण में अत्यधिक स्थानिक विभिन्नता पाई जाती है।यहांँ वर्षा मुख्य रूप से मानसून आधारित है। देश के अधिकांश राज्यों में वर्षा-विहीन शुष्क अवधि काफी अधिक है। मेघालय जैसे राज्य काफी अधिक वर्षा प्राप्त करते हैं। वहीं दूसरी ओर राजस्थान जैसे राज्यों में काफी कम वर्षा होती है।
2) धरातल-
वर्षण के साथ ही धरातलीय विविधता के कारण पूरे देश में भौम जल संसाधनों का वितरण तथा उपयोग भिन्न-भिन्न मिलता है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और तमिलनाडु राज्य में भौम जल का उपयोग बहुत अधिक है। परंतु कुछ राज्य जैसी छत्तीसगढ़, ओडिशा, केरल आदि अपनी भौम जल क्षमता का बहुत कम उपयोग करते हैं।
3) नदियाँ-
गंगा, ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में वर्षा अपेक्षाकृत अधिक होती है। ये नदियाँ यद्यपि देश के कुल क्षेत्र के लगभग एक तिहाई भाग पर पाई जाती हैं जिनमें देश के कुल धरातलीय जल संसाधनों का 60% मिलता है। दक्षिण भारतीय नदियों जैसी गोदावरी, कृष्णा और कावेरी में वार्षिक जल प्रवाह का अधिकतर भाग काम में लाया जाता है। किंतु गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिनों में अभी यह संभव नहीं हो सका है।
4) जनसंख्या-
भारत में विश्व की लगभग 16% जनसंख्या मिलती है और इस जनसंख्या का वितरण पूरे देश में असमान है। जनसंख्या बढ़ने से जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। विशेष रुप से शहरी तथा महानगरीय क्षेत्रों में अधिक जनसंख्या संकेंद्रण से जल संसाधनों पर दबाव बढ़ा है।
5) कृषि क्षेत्र-
धरातलीय जल और भौम जल का सबसे अधिक उपयोग कृषि में होता है। इसमें धरातलीय जल का 89% और भौम जल का 92% उपयोग किया जाता है। वास्तव में भारत की वर्तमान में जल की मांग सिंचाई की आवश्यकताओं के लिए अधिक है। देश में वर्षा के स्थानिक- सामयिक परिवर्तिता के कारण सिंचाई की आवश्यकता अधिक होती है। बहु फसलीकरण के कारण भी कृषि में जल की मांग बढ़ी है।
6) औद्योगिकरण-
देश में बढ़ते औद्योगीकरण के कारण जल की मांग बढ़ी है। अभी औद्योगिक सेक्टर में धरातलीय जल का लगभग 2% और भौम जल का 5% भाग उपयोग में लाया जाता है जिसके भविष्य में बढ़ने की संभावना है। उद्योगों के कारण जल प्रदूषण भी बढ़ा है। आंकड़े बताते हैं कि 1997 में प्रदूषण फैलाने वाले 251 उद्योग नदियों और झीलों के किनारे स्थापित किए गए थे।
7) जल की गुणवत्ता-
भौम जल संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण कई राज्यों में फ्लोराइड का संकेंद्रण भूमिगत जल में बढ़ गया है। पश्चिम बंगाल और बिहार के कुछ भागों में संखिया (arsenic) के संकेंद्रण की वृद्धि हो गई है। बढ़ते जल प्रदूषण के कारण भी जल की गुणवत्ता घटी है। देश की कई नदियाँ काफी प्रदूषित हो चुकी है। देश में गंगा और यमुना दो अत्यधिक प्रदूषित नदियाँ हैं। दिल्ली और इटावा के बीच यमुना नदी देश में सबसे अधिक प्रदूषित नदी है।
8) जीवन शैली-
बदलती हुई जीवन शैली में जल का अति उपयोग तथा दुरुपयोग भी बढ़ा है। शहरों की बढ़ती संख्या, बढ़ती हुई जनसंख्या तथा शहरी जीवनशैली के कारण न केवल जल और ऊर्जा की आवश्यकता में वृद्धि हुई है बल्कि इनसे संबंधित समस्याएँ और भी गहरी हुई हैं। इससे शहरों में जल संसाधनों का अति शोषण हो रहा है और उनकी कमी होती जा रही है।
उत्तर- पृथ्वी पर लगभग 71% भाग पर जल का विस्तार है परंतु अलवणीय जल कुल जल का लगभग 3% ही है। और इसमें से भी एक बहुत छोटा भाग ही मानव उपयोग के लिए उपलब्ध है। इसलिए अलवणीय जल की उपलब्धता स्थान और समय के अनुसार भिन्न- भिन्न है।
इस दुर्लभ संसाधन के आवंटन और नियंत्रण पर तनाव और लड़ाई-झगड़े, समुदायों, प्रदेशों और राज्यों के बीच विवाद का विषय बन गए हैं।
जल संसाधनों के दोहन की वर्तमान प्रवृत्ति जारी रहती है तो जल की मांग आपूर्ति की तुलना में अधिक होगी। ऐसी स्थिति विकास के लिए हानिकारक तथा सामाजिक उथल-पुथल और विघटन का कारण हो सकती है।
जल संसाधनों का ह्रास सामाजिक द्वंद्वों और विवादों को जन्म देते हैं। इसके कुछ उदाहरण हम देखते हैं-
1) गुजरात में साबरमती बेसिन में सूखे के दौरान नगरीय क्षेत्रों में अधिक जलापूर्ति देने पर परेशान किसान उपद्रव पर उतारू हो गए।
2) जल संसाधनों के बँटवारे को लेकर अंतर्राज्यीय झगड़े बढ़ रहे हैं। कृष्णा- गोदावरी विवाद की शुरुआत महाराष्ट्र सरकार द्वारा कोयना पर जल विद्युत परियोजना के लिए बाँध बनाकर जल की दिशा परिवर्तन करने पर कर्नाटक और आंध्र प्रदेश सरकारों द्वारा आपत्ति जताए जाने से हुई।
3) कई बहुउद्देशीय परियोजनाएँ तथा बड़े बाँध विभिन्न आंदोलनों के कारण बन गए हैं। इन परियोजनाओं का विरोध मुख्य रूप से स्थानीय समुदायों के विस्थापन के कारण है। जैसे- नर्मदा बचाओ आंदोलन और टिहरी बांध आंदोलन।
4) पंजाब और हरियाणा के बीच सतलुज- यमुना लिंक (SYL) नहर को लेकर विवाद अभी तक जारी है।
5) कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी जल विवाद सर्वविदित है। समय-समय पर इस संदर्भ में दोनों राज्यों की ओर से बयानबाजी चर्चा का विषय बनती है।
6) जल संसाधनों को प्राप्त करने तथा स्वामित्व को लेकर स्थानीय स्तर पर विवाद-झगड़े प्रायः अधिकांश स्थानों पर देखने को मिल जाते हैं, चाहे वह गांव हो या शहर का कोई गली-मोहल्ला। कई बार यह संघर्ष हिंसक रूप भी ले लेता है।
उत्तर- जल एक पुनःउपयोगी संसाधन है लेकिन इसकी उपलब्धता सीमित है तथा आपूर्ति और माँग के बीच अंतर बढ़ रहा है। अलवणीय जल की घटती उपलब्धता और बढ़ती माँग से सतत पोषणीय विकास के लिए इस महत्वपूर्ण जीवनदायिनी संसाधन के संरक्षण और प्रबंधन की आवश्यकता बढ़ गई है। ऐसी स्थिति में जल संभर प्रबंधन तथा वर्षा जल संग्रहण की तरफ ध्यान दिया जाना महत्वपूर्ण हो जाता है।
जल संभर प्रबंधन-
जल संभर प्रबंधन से तात्पर्य मुख्य रुप से धरातलीय और भौम जल संसाधनों के सक्षम प्रबंधन से है। इसके अंतर्गत बहते हुए जल को रोकना और विभिन्न विधियों जैसे अंतःस्रवण तालाब, पुनर्भरण कुओं, झीलों, रोक बाँध(Check dams) आदि के द्वारा भौम जल का संचयन और पुनर्भरण शामिल हैं।
व्यापक अर्थ में जल संभर प्रबंधन के अंतर्गत सभी प्राकृतिक संसाधनों जैसे- भूमि, जल, पौधे और प्राणियों तथा जल संभर सहित मानवीय संसाधनों के संरक्षण, पुनरुत्पादन और विवेकपूर्ण उपयोग को शामिल किया जाता है।
सतत पोषणीय विकास में जल संभर प्रबंधन की भूमिका–
सतत पोषणीय विकास के अंतर्गत विकास दीर्घ जीवी होना चाहिए जो न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य का भी ध्यान रखें और पर्यावरण निम्नीकरण को बढ़ावा ना दें। जल संभर प्रबंधन का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों और समाज के बीच संतुलन लाना है। इसलिए जल संभर व्यवस्था की सफलता मुख्य रूप से समुदाय के सहयोग पर निर्भर करती है। किसी भी क्षेत्र के सतत पोषणीय विकास में जल संभर प्रबंधन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। इस संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों ने कई जल संभर विकास और प्रबंधन कार्यक्रम चलाए हैं जैसे-
1) ‘हरियाली’ केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तित जल संभर विकास परियोजना है जिसका उद्देश्य ग्रामीण जनसंख्या को पीने, सिंचाई, मत्स्य पालन और वन रोपण के लिए जल संरक्षण के लिए योग्य बनाना है। यह परियोजना लोगों के सहयोग से ग्राम पंचायतों द्वारा निष्पादित की जा रही है।
2) नीरू- मीरू(जल और आप) कार्यक्रम आंध्र प्रदेश में चलाया जा रहा है।
3) अलवर (राजस्थान) में अरवारी पानी संसद योजना के तहत लोगों के सहयोग से विभिन्न प्रकार की जल संग्रहण संरचनाएँ जैसे- अंतः-स्रवण तालाब (जोहड़) की खुदाई की गई है और रोक बाँध बनाए गए हैं।
4) कुछ क्षेत्रों में जल संभर विकास परियोजनाएँ पर्यावरण और अर्थव्यवस्था का कायाकल्प करने में सफल हुई है। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में रालेगण सिद्धि गांव पूरे देश में जल संभर विकास का एक उदाहरण है।
इस संदर्भ में लोगों के बीच जागरूकता उत्पन्न करने की आवश्यकता है। जल संभर विकास और प्रबंधन के लाभों को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक नागरिक को आगे आना चाहिए। देश के अलग-अलग भागों से मिले उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि जल संभर प्रबंधन उपागम द्वारा जल की उपलब्धता सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देती है।