अभ्यास के सभी प्रश्नोत्तर
(i). स्थल रूप विकास की किस अवस्था में अधोमुख कटाव प्रमुख होता है?
(क) तरुणावस्था
(ख) प्रथम प्रौढ़ावस्था
(ग) अंतिम प्रौढ़ावस्था
(घ) वृद्धावस्था
उत्तर-(क) तरुणावस्था
(क) U आकार घाटी
(ख) अंधी घाटी
(ग) गॉर्ज
(घ) कैनियन
उत्तर-(घ) कैनियन
(क) आर्द्र प्रदेश
(ख) शुष्क प्रदेश
(ग) चूना- पत्थर प्रदेश
(घ) हिमनद प्रदेश
उत्तर-(ग) चूना- पत्थर प्रदेश
(क) छोटे से मध्यम आकार के उथले गर्त
(ख) ऐसे स्थल रूप जिनके ऊपरी मुख वृत्ताकार व नीचे से कीप के आकार के होते हैं
(ग) ऐसे स्थल रूप जो धरातल से जल के टपकने से बनते हैं
(घ) अनियमित धरातल जिनके तीखे कटक व खाँच हों
उत्तर-(घ) अनियमित धरातल जिनके तीखे कटक व खाँच हों
(क) सर्क
(ख) पार्श्विक हिमोढ़
(ग) घाटी हिमनद
(घ) एस्कर
उत्तर-(क) सर्क
(I) चट्टानों में अधःकर्तित विसर्प और मैदानी भागों में जलोढ़ के सामान्य विसर्प क्या बताते हैं?
उत्तर-चट्टानों में अधःकर्तित विसर्प और मैदानी भागों में जलोढ़ के सामान्य विसर्प नदी के मंद ढाल को दर्शाते हैं क्योंकि मंद ढालों पर बहती नदियां अधिक पार्श्व अपरदन करती हैं। क्षैतिज अपरदन अधिक होने के कारण मंद ढालों पर बहती हुई नदियाँ विसर्प बनाती हैं।
उत्तर- घाटी रंध्र या युवाला भौम जल द्वारा बने अपरदित स्थल रूप हैं।
भौम जल के अपरदन से बनी कंदराओं की छत के गिरने या पदार्थ के स्खलन द्वारा जब घोल रंध्र व डोलाइन आपस में मिल जाते हैं तो लंबी, तंग तथा विस्तृत खाइयाँ बनती हैं, जिन्हें घाटी रंध्र या युवाला कहते हैं।
उत्तर-चूनायुक्त चट्टानी प्रदेशों में चट्टानें पारगम्य, कम सघन तथा अत्यधिक जोड़ों/ संधियों व दरारों वाली होती है जिससे धरातलीय जल आसानी से रिस जाता है। लंबवत गहराई में जाने के बाद यह भौम जल के रूप में क्षैतिज अवस्था में बहना प्रारंभ करता है। चूना पथर,डोलोमाइट जैसी चट्टानों में कैल्सियम कार्बोनेट की प्रधानता होती है, जिससे भौम जल रासायनिक प्रक्रिया (घोलीकरण व अवक्षेपण) द्वारा अनेक स्थलरूप विकसित करते हैं।
उत्तर-हिमनद घाटियों में कई रैखिक निक्षेपण स्थलरूप मिलते हैं जो इस प्रकार है-
1.हिमोढ़-
हिमनद के पार्श्वों में पार्श्विक हिमोढ़, मध्य में मध्यस्थ हिमोढ़ तथा अंतिम भाग में अंतस्थ हिमोढ़।
2.एस्कर-
हिमनद के पिघलने के बाद एक वक्राकार कटक के रूप में।
3. ड्रमलिन-
हिमनद के प्रवाह की दिशा में अंडाकार समतल कटकनुमा स्थलरूप।
4. हिमानी धौत मैदान।
उत्तर-मरुस्थलीय क्षेत्र में पवन अपवाहन,घर्षण आदि द्वारा अपरदन करती है।पवन अपरदन और निक्षेपण द्वारा कई स्थलरूप बनाती है किंतु यह मरुस्थलों में एकमात्र कारक नहीं है क्योंकि मरुस्थलों में अधिकतर स्थलाकृतियों का निर्माण बृहत् क्षरण और प्रवाहित जल की चादर बाढ़ से होता है। मरुस्थलों में वर्षा बहुत कम होती है लेकिन यह अल्प समय में मूसलाधार वर्षा के रूप में होती है और बृहत् अपरदन मुख्यतः चादर बाढ़(Sheet flood) या वृष्टि धोवन(Sheet wash) से ही होता है।
(I) आर्द्र व शुष्क जलवायु प्रदेशों में प्रवाहित जल ही सबसे महत्वपूर्ण भू- आकृतिक कारक है। विस्तार से वर्णन करें।
उत्तर-यह तथ्य सही है कि आर्द्र व शुष्क जलवायु प्रदेशों में प्रवाहित जल ही सबसे महत्वपूर्ण भू- आकृतिक कारक है।
क) आर्द्र प्रदेश में जहाँ अत्यधिक वर्षा होती है प्रवाहित जल सबसे महत्वपूर्ण भू- आकृतिक कारक है जो धरातल के निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी है।
प्रवाहित जल के दो तत्व हैं-
1) धरातल पर परत के रूप में फैला हुआ प्रवाह
2) नदियों तथा सरिताओं के रूप में रैखिक प्रवाह है ।
प्रवाहित जल द्वारा निर्मित अपरदित स्थलरूप ढाल- प्रवणता के अनुरूप बहती हुई नदियों की आक्रामक युवावस्था संबंधित है। कालांतर में तेज ढाल लगातार अपरदन के कारण मंद ढाल में परिवर्तित हो जाते हैं और नदियों का वेग कम हो जाता है जिससे निक्षेपण आरंभ होता है।
तेज ढाल से बहती हुई सरिताएँ भी कुछ निक्षेपित भू- आकृतियाँ बनाती हैं लेकिन यह बहुत कम होते हैं। प्रवाहित जल का ढाल जितना मंद होगा, उतना ही अधिक निक्षेपण होगा।
लगातार अपरदन के कारण पहाड़ियाँ और घाटियाँ समतल मैदानों में परिवर्तित हो जाते हैं जिसे पेनीप्लेन या समप्राय मैदान कहते हैं। प्रवाहित जल से निर्मित प्रत्येक अवस्था के स्थल रूपों का वर्णन इस प्रकार है-
1.युवावस्था-
इस अवस्था में V-आकार की घाटी, गाॅर्ज, कैनियन, जलप्रपात, क्षिप्रिकाएँ, जलगर्तिका (potholes), अवनमित कुंड(plunge pools) आदि बनाती हैं।
2. प्रौढ़ावस्था-
बाढ़ के मैदान, नदी विसर्प, नदी वेदिकाएँ जैसी आकृतियाँ मिलती हैं।
3.वृद्धावस्था-
ढाल अधिक मंद होने के कारण नदियां बाढ़ के मैदानों में बहती हुई नदी विसर्प, प्राकृतिक तटबंध, गोखुर झील, डेल्टा आदि बनाती है।
ख) शुष्क तथा मरुस्थली क्षेत्र में भी प्रवाहित जल महत्वपूर्ण भू- आकृतिक कारक हैं। वास्तव में मरुस्थलों में अधिकतर स्थलाकृतियों का निर्माण बृहत् क्षरण और प्रवाहित जल की चादर बाढ़ से होता है। मरुस्थलों में वर्षा बहुत कम होती है लेकिन यह अल्प समय में मूसलाधार वर्षा के रूप में होती है और बृहत् अपरदन मुख्यतः चादर बाढ़(Sheet flood) या वृष्टि धोवन(Sheet wash) से ही होता है। मरूभूमियों में नदियाँ चौड़ी अनियमित तथा वर्षा के बाद अल्प समय तक ही प्रवाहित होती हैं। शुष्क तथा मरुस्थलीय क्षेत्र में प्रवाहित जल द्वारा बनने वाले विभिन्न स्थल रूपों का वर्णन इस प्रकार है-
1. पेडीमेंट का निर्माण पर्वतीय अग्रभाग के मुख्य रूप से सरिता के क्षैतिज अपरदन व चादर बाढ़ दोनों के संयुक्त अपरदन से होता है।
2.जब पर्वतों का अपरदन हो जाता है तो इंसेलबर्ग बनते हैं जो पर्वतों के अवशिष्ट रूप हैं।
3. लगातार अपरदन से मरुस्थलीय क्षेत्र आकृति विहीन मैदान में परिवर्तित हो जाता है जिसे पेडीप्लेन या पदस्थली कहते हैं।
4. मरूभूमियों में उथली जल की झील प्लाया कहलाती हैं जिसमें लवणों की मात्रा काफी मिलती है। लवणों से भरे प्लाया मैदान कल्लर भूमि या क्षारीय क्षेत्र कहलाते हैं।
उत्तर- चूना चट्टानें आर्द्र व शुष्क जलवायु में भिन्न व्यवहार करती हैं, क्योंकि आर्द्र जलवायु में जल की उपलब्धता के कारण घोलीकरण व अवक्षेपण क्रिया के द्वारा विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ ऐसे क्षेत्र में बनती हैं जबकि शुष्क प्रदेशों में जल का अभाव होने के कारण स्थिति इसके विपरीत होती है।
किसी भी चूना-पत्थर या डोलोमाइट चट्टानों के क्षेत्र में भौम जल द्वारा घुलनप्रक्रिया और उसके निक्षेपण प्रक्रिया से बने ऐसे स्थल रूपों को कार्स्ट स्थलाकृति का नाम दिया गया है। यह नाम एड्रियाटिक सागर के साथ सटे बाल्कन कार्स्ट क्षेत्र में उपस्थित लाइमस्टोन चट्टानों पर विकसित स्थलाकृतियों पर आधारित है।
चूना पत्थर, डोलोमाइट जैसी चट्टानों में कैल्सियम कार्बोनेट की प्रधानता होती है, जिससे भौम जल तथा धरातलीय जल रासायनिक प्रक्रिया (घोलीकरण व अवक्षेपण) द्वारा अनेक स्थलरूप विकसित करते हैं।
अपरदित स्थलरूप-
1. विलयन रंध्र(swallow holes)-
चूना- पत्थर चट्टानों के तल पर घुलन क्रिया द्वारा छोटे व मध्यम आकार के गर्तों का निर्माण होता है जिनके विलय पर इन्हें विलयन रंध्र कहते हैं।
2. घोलरंध्र(sink holes)-
यह एक प्रकार के छिद्र होते हैं जो ऊपर से वृत्ताकार व नीचे कीप की आकृति के होते हैं और इनका विस्तार कुछ वर्ग मीटर से हेक्टेयर तक तथा गहराई आधा मीटर से 30 मीटर या इससे अधिक होती है।
3. निपात रंध्र(collapse sinks)-
जब घोलरंध्रों के नीचे बनी कंदराओं की छत ध्वस्त हो जाती है तो यह बड़े छिद्र निपात रंध्र के नाम से जाने जाते हैं।
4.डोलाइन(dolines)-
ध्वस्त घोलरंध्रों को डोलाइन भी कहा जाता है।
5. घाटीरंध्र(valley sinks) या युवाला(uvalas) –
भौम जल के अपरदन से बनी कंदराओं की छत के गिरने या पदार्थ के स्खलन द्वारा जब घोल रंध्र व डोलाइन आपस में मिल जाते हैं तो लंबी, तंग तथा विस्तृत खाइयाँ बनती हैं, जिन्हें घाटी रंध्र या युवाला कहते हैं।
6.लेपीस(Lapies) –
चूनायुक्त चट्टानों के क्षेत्र में जब अधिकतर भाग गर्तों व खाइयों के हवाले हो जाता है तो पूरे क्षेत्र में अत्यधिक अनियमित, पतले व नुकीले कटक आदि रह जाते हैं जिन्हें लेपीस कहते हैं।
7. कंदराएँ(caves)-ऐसे प्रदेश जहाँ चट्टानों के एकांतर संस्तर हो और इनके बीच में अगर चूना- पत्थर व डोलोमाइट चट्टानें हो तो वहाँ चूना-पत्थर/डोलोमाइट चट्टानों के घुलने से लंबे एवं तंग विस्तृत रिक्त स्थान बनते हैं जिन्हें कंदराएँ कहा जाता है। ऐसी कंदराएँ जिनके दोनों सिरे खुले हों, उन्हें सुरंग(tunnels) कहते हैं।
निक्षेपित स्थलरूप-
1. स्टैलेक्टाइट(stalactites)-
स्टैलेग्माइट की छत से लटकते हुए विभिन्न मोटाई के स्तंभ स्टैलेक्टाइट कहलाते हैं। यह प्रायः आधार पर या कंदरा की छत के पास मोटे होते हैं और अंत के छोर पर पतले होते जाते हैं।
2. स्टैलेग्माइट(stalagmites) –
स्टैलेग्माइट कंदराओं की छत से धरातल पर टपकने वाले चूनामिश्रित जल से बनते हैं या स्टैलेक्टाइट के ठीक नीचे पतले पाइप के आकृति में बनते हैं।
3. स्तंभ(pillars)-
विभिन्न मोटाई के स्टैलेग्माइट तथा स्टैलेक्टाइट के मिलने से स्तंभ और कंदरा स्तंभ बनते हैं।
उत्तर- पृथ्वी पर परत के रूप में हिम प्रवाह या ढालों से घाटियों में रैखिक प्रवाह के रूप में बहते हिम सहंति को हिमनद कहते हैं।
महाद्वीपीय हिमनद या गिरिपद हिमनद वे है जो बड़े समतल क्षेत्र पर हिम परत के रूप में फैले हों तथा पर्वतीय या घाटी हिमनद वे हिमनद है जो पर्वतीय ढालों में बहते हैं। प्रवाहित जल के विपरीत हिमनद प्रवाह बहुत धीमा होता है जो मुख्यतः गुरुत्वाकर्षण बल के कारण कुछ सेंटीमीटर या कुछ मीटर तक प्रतिदिन प्रवाहित हो सकते हैं।
हिमनदों से प्रबल अपरदन होता है जिसका कारण इसके अपने भार से उत्पन्न घर्षण है। हिमनद द्वारा कर्षित चट्टानी पदार्थ इसके तल में ही इसके साथ घसीटे जाते हैं या घाटी के किनारों पर अपघर्षण व घर्षण द्वारा अत्यधिक अपरदन करते हैं।
हिमनद अपक्षय रहित चट्टानों का भी प्रभावशाली अपरदन करते हैं, जिससे ऊँचे पर्वत छोटी पहाड़ियों व मैदानों में परिवर्तित हो जाते हैं। हिमनद के लगातार संचलित होने से हिमनद मलबा हटता जाता है, विभाजक नीचे हो जाता है और कालांतर में ढाल इतने निम्न हो जाते हैं कि हिमनद की संचलन शक्ति समाप्त हो जाती है एवं निम्न पहाड़ियों व अन्य निक्षेपित स्थल रूपों वाला एक हिमानी धौत(outwash plain) रह जाता है।